Nikita Biswas
19/UMTA/103
मानव जाति का आविर्भाव धरती पर लाखों साल पहले हुआ था। इंसान लाखों साल पुराना ज़रूर हो सकता है, मगर क्या इंसानियत भी उतनी ही पुरानी हो चुकी हैं? क्या इंसानियत इतनी शीर्ण बं गई है कि उस में अब जाले पड़ जाए?
आधुनिक युग का इंसान समय को अपनी जागीर बनाने की होड़ में हैं। आज वह दिन को रात एवं रात को दिन करने के लिए जी जान लगा रहा है।
समय और पानी, उनकी कमियों में काफ़ी एक समान बन चुके हैं। इंसान को आज दोनों की कमी महसूस होती है। आज का इंसान समय के पीछे निरंतर भाग रहा है, मगर समय जल की तरह उसके हाथों की लकीरों को हल्के से चूमकर, बेहकर निकल जाए रहा है। किसी महा पुरुष ने सत्य ही कहा था, समय और ज्वार किसी की प्रतीक्षा नहीं करते !
मानव जीवन का मूलांकन कागज़ पर कुछ अंको तक सीमित हो गया है। इन अंकों को ' मार्क्स ', कहा जाता हैं। अच्छे ' मार्क्स ' कुबेर के खज़ाने की चाबी की तरह है। इस ' मार्क्स ' नामक चीज़ का महत्व इतना ही बढ़ गया है कि कहीं ना कही अपनी नज़र में, अपने जीवन का मूल भाव ' मार्क्स ' नामक तराज़ू में माप रहे हैं।
ऐसा प्रतीत होता है, मानो आज का दौर सिर्फ़ भागना जानता हैं। हर ज़िन्दगी का सफर एक प्रतियोगिता बन गया है: जिसे मंज़िल पहले मिली, वही विजेता और जिसे नहीं, उसका सफर उल्लेख योग्य भी नहीं होता। इस प्रतियोगिता में ‘पार्टिसिपेशन सर्टिफिकेट ' कि व्यवस्था नहीं हैं। ओटीपी (One time password) की तरह हर प्रतियोगिता में एक ही बार भाग लिया जा सकता है।
क्या हम सच में चलना भूल गए हैं? बचपन का चलना मानो यादों के बंद कमरों में सीलन खा रहा हो।
या फिर इसीलिए भाग रहे हैं क्योंकि हमारे पास वाला इंसान भी भाग रहा है?
बात यह है, की भागते हुए आस पास की चीज़ें गतिशील ही लगता है!
अब आप ही सोचिए।
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